Friday, June 06, 2008

पापा के लिए...

मुझे याद है, जब मेरी ठुड्डी पर थोडी-सी क्रीम लगाकर, तुम दुलारते थे मुझे, एक उम्मीद भी रहती होगी तुम्हारे अन्दर, कि कब हम बड़े हों, और दुलार सकें तुम्हे, आज भी ठीक से नहीं बन पता शेव, ठुड्डी पर उग आई है दाढी, उग आए हैं तुम्हारे रोपे गए पौधे भी, (भइया और मैं...) मैं बड़ा होता रहा तुम्हे देखकर, तुम्हारी उम्र हमेशा वही रही... तुमने कभी नहीं माँगा, मेरे किए गए खर्च का हिसाब, एक विश्वास की लकीर हमने, खींच-ली मन ही मन, कि, जब कभी कोई नहीं होता मेरे साथ, मेरे आस-पास, तुम दूर से ही देते हो हौसला, साठ की उम्र में भी तुम, बन जाते हो मेरे युवा साथी, पता नहीं मैं पहुँच पाता हूँ कि नहीं, तुम तक, जब सो जाती है माँ, और तुम उनींदे-से, बतिया रहे होते हो अपनी थक चुकी पीठ-से, काश, मैं दबा पाता तुम्हारे पाँव हर रोज़!! अक्सर मन होता है कि, पकड़ लूँ दिन की आखिरी ट्रेन और अगली सुबह हम खा सकें, एक ही थाली में... तुम कभी शहर आना तो दिखलाऊं तुम्हे, कैसे सहेज रहे हैं हम तुम्हारी उम्मीदें, धुएं में लिपटा शहर किसे अच्छा लगता है... मैं सोचता हूँ, कि मेरा डॉक्टर या इंजिनियर बनना, तुम्हे कैसे सुख देगा, जबकि हर कोई चाहता है कि, कम हो मेरी उपलब्धियों की फेहरिस्त..... मैं सोचता हूँ, हम क्या रेस-कोर्स के घोडे हैं, (भइया और मैं...) कि तुम लगाते हो हम पर, अपना सब कुछ दांव.. तुम्हारी आँखें देखती हैं सपना, एक चक्रवर्ती सम्राट बनने का, तुमने छोड़ दिए हैं अपने प्रतीक-चिन्ह, (भइया और मैं....) कि हम क्षितिज तक पहुँच सकें, और तुम्हारी छाती चौड़ी हो जाए क्षितिज जितनी.. रोज़ सोचता हूँ, भेजूँगा एक ख़त तुम्हे, मेरी मेहनत की बूँद से चिपकाकर, और जब तुम खोलो, तुम्हारे लिए हों ढेर सारे इन्द्रधनुष, कि तुम मोहल्ले भर में कर सको चर्चा... और माँ भी बिना ख़त पढे, तुम्हारी मुस्कान की हर परत में, पढ़ती रहे अक्षर-अक्षर.... निखिल आनंद गिरि