Friday, February 23, 2007
'मैंने अमृता को जी लिया, अमृता ने मुझे'....
इमरोज़ की तमाम कृतियों में अमृता साथ नज़र आती हैं.
मुझे अमृता की वो नज़्म याद है- मैं तैनू फिर मिलांगी....
आज भी वो नज़्म वैसे ही गूँज रही है. मैं उसे सुन रहा हूँ. तो जो अच्छा लगता है, वो याद भी रहता है.
अमृता तीन सालों तक बीमार रही और फिर चली गई पर मैं इससे साहित्य को हुए नुक़सान को क्यों याद करूँ.
मैं उन दिनों को ही याद करूँगा जिनमें साहित्य को उससे लाभ मिला है. मैं नुक़सान को ही क्यों देखूँ.
कोई आदमी अपने बुढ़ापे में बहुत कुछ नहीं कर पाता है. जिस्म ही साथ नहीं देता.
अमृता तो लिख सकती थीं पर जिस्म ही साथ नहीं दे रहा था.
उसने कभी इनकार तो नहीं किया कि वो नहीं लिखना चाहती. उसने तो तब तक लिखा, जब तक उसके शरीर ने उसका साथ दिया.
उसके साथ रहना बिल्कुल सहज लगता था, बिल्कुल सहज. जो अमूमन लोगों में नहीं होता. ख़ासकर शादियों में तो बिल्कुल नहीं होता.
यहाँ तो सहज रहते हुए 40 सालों से ज़्यादा जी लिए.
उसने मुझे जी लिया, मैंने उसे जी लिया.
अमृता के अंतिम संस्कार में एक-दो साहित्यकार ही आए.
इतने सारे साहित्यकार हैं दिल्ली में, पर न तो बीमारी के वक़्त कोई आया और न ही आज.
अजीत कौर आई थीं, कुछ एक और थे पर बाकी तमाम नहीं.
पर अमृता को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.
फिर समकालीन क्या कभी अपने साथ के लोगों का साथ देते हैं. किसी मुल्क में नहीं देते. यह सिर्फ़ हमारे मुल्क की ही समस्या नहीं है.
पहले तो उसे प्रोत्साहित ही नहीं करता तो फिर मिलेगा क्या.
तो एक जगह की बात नहीं है, सब जगह का यही हाल है.
वो जब तक मर नहीं जाता, उसके बारे में बात नहीं करते हैं.
कई दिनों से कैनवस छूटा हुआ है पर मुझे लगता है कि जीना ज़रूरी है, पेंटिंग करना ज़रूरी नहीं.
अगर आगे कभी कैनवस पर काम शुरू किया तो अमृता का प्रभाव भी रहेगा.
जो अच्छा असर होता है, वो तो रहता ही है, यह भी रहेगा.
इमरोज़
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