Monday, March 19, 2007

खेल को खेल ही रहने दो.........

त्रिनिदाद से मानक गुप्ता बीबीसी संवाददाता भारतीय टीम की बांग्लादेश के हाथों हार के बाद रविवार को कई शहरों में प्रदर्शन हुए किंग्स्टन से बॉब वूल्मर की मौत की ख़बर जैसे ही ट्रिनिडैड पहुँची, एक साथी पत्रकार ने मुझसे कहा – एशियाई क्रिकेट ने ये पहली जान ली है. शायद इस घटना को कम शब्दों में इससे बेहतर बयान करना संभव नहीं. भारतीय टीम का अभ्यास सत्र देखने के बाद होटल वापस जाते समय टैक्सी वाले ने मुझसे पूछा – यू नो द कोच हैज़ डाइड - यानी क्या आपको पता है कोच की मौत हो गई है? मैं अभी इस सदमे से उबरा नहीं था और वूल्मर से अपनी आख़िरी मुलाक़ात को याद कर रहा था इसलिए सिर्फ़ सिर हिला कर कहा हाँ. मेरी ठंडी प्रतिक्रिया देख कर टैक्सी वाला नाराज़ हो गया और बोला – क्या क्रिकेट का खेल आपके लिए एक इन्सान की जान से बड़ा है....कितने पत्थर दिल होते हैं एशियाई लोग. टैक्सी अचानक आधे रास्ते ही सड़क किनारे रुक गई और मेरे कानों में आवाज़ आई – "गेट डाउन हियर, आई डोन्ट वॉन्ट अ कस्टमर लाइक यू" मैं थका हुआ था और दुखी भी लेकिन बीच रास्ते टैक्सी से उतर जाने की बात सुन कर मुझे होश आया और मैंने उसे समझाया कि मैं बॉब वूल्मर के बारे में ही सोच रहा हूँ, टैक्सी दोबारा चल पड़ी. होटल के बाक़ी रास्ते में उस ने सिर्फ़ इतना ही कहा – क्यों नहीं आपके यहाँ लोग खेल को खेल की तरह लेते. भारतीय मूल के उस टैक्सी ड्राइवर का सवाल जायज़ था लेकिन उसका जवाब मेरे पास नहीं था. क्रिकेट बनाम फ़ुटबॉल दक्षिण एशिया से यहाँ वर्ल्ड कप कवर करने आए पत्रकारों को तो अपने यहाँ क्रिकेटरों के पुतले जलते देखने की आदत है इसलिए जब सुबह उठते ही धोनी के घर पर हमले और कई अन्य क्रिकेटरों के घर सुरक्षा गार्ड तैनात करने की ख़बर आई तो पत्रकारों को तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ. वूलमर की मौत ने कई सवाल उठाए हैं कुछ विदेशी पत्रकार ख़ुसर फुसर करते नज़र आए लेकिन क्वीन्स पार्क ओवल मैदान पर बड़ी संख्या में मौजूद भारतीय पत्रकारों से थोड़ा दूर हट कर. वो मुझे जानते थे इसलिए मेरे पास जाने पर भी बातचीत का मुद्दा बदला नहीं. उनमें से एक अंग्रेज़ क्रिकेट के प्रति भारत और पाकिस्तान में लोगों की दीवानगी से ख़ासा नाराज़ लग रहा था. पता नहीं क्यों, उनसे बात करते हुए तो मैंने उन्हें 1998 के फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप में अर्जेन्टीना के ख़िलाफ़ डेविड बेकेम का रेड कार्ड याद दिला दिया जिसकी वजह से लंदन में बेकेम का पुतला जलाया गया था और उनको जान से मार डालने की धमकियाँ मिली थीं. मैंने उन्हें ये भी याद दिलाया कि कई अफ़्रीकी देशों में लोग फ़ुटबॉल के वर्ल्ड कप क्वालिफ़ायंग मैचों में ख़राब प्रदर्शन पर या कोई मौक़ा खोने पर कैसे अपने ही खिलाड़ियों के घर पर हमला कर चुके हैं....कइयों को तो जान बचा कर यूरोप में अपने क्लब में शरण लेनी पड़ी है. दबाव और तनाव उन विदेशी पत्रकारों को तो शायद मैं चुप करने में कामयाब रहा लेकिन अंदर ही अंदर जानता था कि जितने दबाव में भारत और पाकिस्तान के खिलाड़ी क्रिकेट खेलते हैं ख़ासकर चिरप्रतिद्वंद्वी टीमों के ख़िलाफ़ या फिर वर्ल्ड कप जैसी बड़ी प्रतियोगिताओं में, उतना दबाव दुनिया के किसी देश में, किसी खेल में नहीं होगा. लोग भूल जाते हैं कि ये खिलाड़ी भी इनसान हैं, अपने बचपन के न जाने कितने साल वो त्याग करते हैं और अब भी उनके जितनी मेहनत कम ही लोग करते होंगे. लेकिन लोगों को सिर्फ़ उनका पैसा और ग्लैमर दिखाई देता है सुबह धोनी को टीम बस से उतर कर नेट्स की तरफ़ जाते देख कर साफ़ ज़ाहिर था कि वो कितने परेशान हैं. द्रविड को मैंने पहले कभी इतना उदास नहीं देखा, उनकी आँखों में आँसू थे. आम तौर पर रुक कर मुझ से हँसी मज़ाक करने वाले खिलाड़ियों को आज जैसे साँप सूँघ गया था. लेकिन जिसकी ग़ैरहाज़िरी में उसके घर पर हमला हो, पुतले जलाए जाएँ, परिवार और संपत्ति की सुरक्षा के लिए घर के बाहर सुरक्षा गार्ड्स तैनात करने पड़ें – उसके मन की हालत और कोई नहीं समझ सकता. इस सबके ऊपर डर ये कि अगर वर्ल्ड कप से पहले ही दौर में बाहर हो घर जाना पड़ा तो क्या होगा. इस सबके बीच बॉब वूल्मर की मौत की ख़बर सुन कर तो भारतीय ख़ेमा मायूसी में डूब गया – एक तो इसलिए कि वूल्मर अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट बिरादरी के एक अहम सदस्य थे, दूसरे उनके साथ ग्रेग चैपल और सीनियर खिलाड़ियों के अच्छे संबंध थे और तीसरा ये कि इस घटना ने खिलाड़ियों को झकझोर कर अहसास दिलाया कि करोड़ों दीवाने लोगों की उम्मीदों का भार उठा कर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलना किस क़दर ख़तरनाक हो सकता है. भारतीय टीम के मेनेजर और चयन समिति के सदस्य संजय जगदाले ने कहा “पता नहीं लोग ये क्यों भूल जाते हैं कि यही क्रिकेटर उनको बिना त्यौहार के ख़ुशी मनाने का मौक़ा देते हैं. दीवाली से छह महीने पहले आसमान में आतिशबाज़ी का नज़ारा भी इन क्रिकेट खिलाड़ियों की मेहनत का ही नतीजा होती है लेकिन लोग भूल जाते हैं कि ये खिलाड़ी भी इनसान हैं, अपने बचपन के न जाने कितने साल वो त्याग करते हैं और अब भी उनके जितनी मेहनत कम ही लोग करते होंगे. लेकिन लोगों को सिर्फ़ उनका पैसा और ग्लैमर दिखाई देता है.” जिस धोनी को सिर पर बिठाने को तैयार थे, उसी धोनी के निर्माणाधीन मकान में तोड़फोड़ करते प्रदर्शनकारी संजय जगदाले मीडिया पर इसका पूरा दोष नहीं डालते लेकिन मुझे लगता है अगर ये 24 घंटे वाले चैनल इतने कमर्शियल न होते तो शायद हमारे खिलाड़ी इतने असुरक्षित महसूस न करते. उस टैक्सी वाले का सवाल अब भी रह रह कर मुझे परेशान कर रहा है – क्यों नहीं भारत और पाकिस्तान में लोग खेल को खेल की तरह लेते. मैचफ़िक्सिंग कांड के दौरान लोगों का ग़ुस्सा समझ में आता था लेकिन ईमानदार कोशिश के बावजूद क्रिकेट के मैदान पर नाकामी कोई जुर्म तो नहीं. क्यों पत्थरदिल न होते हुए भी भारत और पाकिस्तान के लोग दुनिया के सामने अपनी वैसी छवि पेश करते हैं? मैं तो यही कहूँगा अब भी देर नहीं हुई है. न तो ज़रा सी बहादुरी पर क्रिकेट खिलाड़ियों को हीरो बनाएँ और न ही कोई मैच, सीरीज़ या टूर्नामेन्ट हारने पर इस तरह ज़्यादती करें. इसी में सबकी भलाई है, आपकी, आपके देश की और उस खेल की जिसे आप सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं. वरना पता कहीं क्रिकेट का ये दीवानापन देश के कोने कोने में कितने सचिन तेंदुलकर और महेन्द्र सिंह धोनी बनने से पहले ही नष्ट कर देगा.