Monday, May 14, 2007

संघर्ष और सचाई से भरा मंटो का जीवन.....

मंटो का जन्म 11 मई 1912 को अमृतसर के एक पुश्तैनी बेरिस्टर परिवार में हुआ था. सआदत हसन के क्राँतिकारी दिमाग़ और अतिसंवेदनशील हृदय ने उसे मंटो बना दिया और तब जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर कहानी 'तमाशा' आई. यह मंटो की पहली कहानी थी. धीरे-धीरे मंटो का रूझान रूसी साहित्य की ओर बढ़ने लगा. जिसका प्रभाव हमें उनके रचनाकर्म में दिखाई देता है. उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे 'द लास्ट डेज़ ऑफ ए कंडेम्ड' का उर्दू अनुवाद किया जो “सरगुजश्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ. इस अनुवाद के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड के ड्रामे 'वेरा' का अनुवाद किया. दो ड्रामे अनुवाद करने के बाद मंटो ने रूसी कहानियों का अनुवाद किया जो 'रूसी अफ़साने' शीर्षक से प्रकाशित हुआ. साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ मंटो ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखनी चाही जिसके तहत उन्होंने 1934 में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. मंटो उस समय 22 साल के थे. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही मंटो की मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई. यहाँ प्रगतिशील माहौल ने मंटो की रचनात्मकता को और पैना किया और यहीं उन्होंने अपनी दूसरी कहानी 'इंकलाब पसंद' लिखी जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुई. लिखने का सिलसिला शुरू हो चुका था. 1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ शीर्षक था 'आतिशपारे.' अलीगढ़ में मंटो ज़्यादा टिक नहीं सके. वह अमृतसर और फिर लाहौर आ गए. जहाँ उन्होंने कुछ दिन 'पारस' नाम के अख़बार में काम किया और 'मुसव्विर' नामक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन भी. यहाँ भी मंटो की बेचैन रूह ने ज़्यादा दिन रहना गवारा नहीं किया और वे मुंबई आ गए. यहाँ उन्होंने कुछ पत्रिकाओं का संपादन और फ़िल्मों का लेखन जारी रखा. मंटो मुंबई में चार साल रहे. जनवरी 1941 में मंटो दिल्ली आ गए और उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरू कर दिया. इस दौरान उनके रेडियो नाटक के चार संग्रह प्रकाशित हुए 'आओ', 'मंटो के ड्रामे', 'जनाज़े' तथा 'तीन औरतें' और विवादास्पद कहानियों का संग्रह 'धुआँ' और समसामयिक विषयों पर लिखे लेखों का संग्रह 'मंटो के मज़ामीन' भी दिल्ली प्रवास के दौरान प्रकाशित हुआ. जुलाई 1942 को मंटो दोबारा मुंबई आ गए और जनवरी 1948 तक रहे. इस दौरान उनका महत्वपूर्ण संग्रह 'चुगद' प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी बेहद चर्चित कहानी 'बाबू गोपीनाथ' भी शामिल है. मुंबई के अपने पहले और दूसरे प्रवास में मंटो ने साहित्यिक लेखन के अलावा फ़िल्मी पत्रकारिता की और फ़िल्मों के लिए कहानियाँ और पटकथा लिखी जिसमें 'अपनी नगरिया', 'आठ दिन' और मिर्ज़ा गालिब विशेष रूप से चर्चित रही. 1948 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए. जहाँ उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियाँ संग्रहित हैं. इन कहानियों में 'सियाह हाशिए', 'नंगी आवाज़ें', 'लाइसेंस', 'खोल दो', 'टेटवाल का कुत्ता', 'मम्मी', 'टोबा टेक सिंह,' 'फुंदने', 'बिजली पहलवान', 'बू', 'ठंडा गोश्त', 'काली शलवार' और 'हतक' जैसी तमाम चर्चित कहानियाँ शामिल हैं. जिनमें कहानी 'बू', 'काली शलवार','ऊपर-नीचे', 'दरमियाँ', 'ठंडा गोश्त', 'धुआँ' पर लंबे मुकदमे चले. हालाँकि इन मुकदमों से मंटो मानसिक रूप से परेशान ज़रूर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों थे. इन्हीं मुकदमो से संबंधित एक दिलचस्प घटना इस तरह है कि एक व्यक्ति ने मंटो से कहा 'भाई मंटो साहब आपकी कहानी 'बू' तो बड़ी बदबू फैला रही है. मंटो का जवाब था तो आप 'फिनाइल' लिख दें. मंटो सिर्फ़ 42 साल जिए, लेकिन उनके 19 साल के साहित्यिक जीवन से हमें 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख मिले. तमाम ज़िल्लतें और परेशानियाँ उठाने के बाद, 18 जनवरी 1955 में मंटो ने अपने उन्हीं तेवरों के साथ, इस दुनिया को अलविदा कह दिया.