Monday, July 02, 2007

खर्च होना चाहता हूँ एक मुश्त.........

विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ तीर्थयात्रा में पैदल अपने पड़ोस जा रहा हूँ. इस तरह जाना क्या यात्रा नहीं है. बहुत दूर चले जाना ही यात्रा है जो मैं अब कर नहीं सकता. घर से निकल नहीं सका तीन दिन अब पड़ोस के घर जा रहा हूँ दो कदम ही चला हूँ-घर से दूर, मैं यात्रा में हूँ तीर्थयात्रा में. * * * * * सब संख्यक लोगों और जगहों में मैं छूटता रहा कभी थोड़ा कभी बहुत और छूटा रहकर रहा आता रहा. मैं हृदय में जैसे अपनी ही जेब में एक इकाई सा मनुष्य झुकने से जैसे जब से सिक्का गिर जाता है हृदय से मनुष्यता गिर जाती है सिर उठाकर मैं बहुजातीय नहीं सब जातीय बहुसंख्यक नहीं सब संख्यक होकर एक मनुष्य खर्च होना चाहता हूँ एक मुश्त. विनोद कुमार शुक्ल217, शैलेंद्र नगर,रायपुर, छत्तीसगढ़. 492 001