Wednesday, May 09, 2007
... माँ की वजह से प्रेमचंद के भक्त बने मुक्तिबोध
माँ की वजह से प्रेमचंद के भक्त बने मुक्तिबोधएक छाया-चित्र है. प्रेमचंद और प्रसाद दोनों खड़े हैं. प्रसाद गंभीर सस्मित. प्रेमचंद के होंठों पर अस्फुट हास्य. विभिन्न प्रकृति के दो धुरंधर हिंदी कलाकारों के उस चित्र पर नज़र ठहरने का एक और कारण भी है. प्रेमचंद का जूता कैनवैस का है. और वह अंगुलियों की ओर से फटा हुआ है. जूते की क़ैद से बाहर निकलकर अँगुलियाँ बड़े मज़े में मैदान की हवा खा रही हैं.
फोटो खिंचवाते वक़्त प्रेमचंद अपने विन्यास से बेख़बर हैं. उन्हें तो इस बात की ख़ुशी है कि वे प्रसाद के साथ खड़े हैं, और फोटो निकलवा रहे हैं.
इस फोटो का मेरे जीवन में काफ़ी महत्व रहा है. मैंने उसे अपनी माँ को दिखाया था. प्रेमचंद का सूरत देख मेरी माँ बहुत प्रसन्न मालूम हुई. वह प्रेमचंद को एक कहानीकार के रूप में बहुत-बहुत चाहती थीं.
उसकी दृष्टि से, यानी उसके जीवन में महत्व रखने वाले, सिर्फ़ दो ही उपन्यास लेखक हुए हैं – एक, हरिनारायण आप्टे; दूसरे, प्रेमचंद. आप्टे की सर्वोच्च मराठी कृति, उसके लेखे, पण लक्षान्त कोण घेतो है, जिसमें भारतीय परिवार में स्त्री के उत्पीड़न की करुण कथा कही गई है. वह क्राँतिकारी करुणा है. उस करुणा ने महाराष्ट्रीय परिवारों को समाज-सुधार की ओर अग्रसर कर दिया.
मेरी माँ जब प्रेमचंद की कृति पढ़ती, तो उसकी आँखों में बार-बार आँसू छल-छलाते-से मालूम होते. और तब-उन दिनों मैं साहित्य का एक जड़मति विद्यार्थी मात्र मैट्रिक का एक छोकरा था-प्रेमचंद की कहानियों का दर्द-भरा मर्म माँ मुझे बताने बैठती. प्रेमचंद के के पात्रों को देख, तदनुसारी-तदनुरूप चरित्र माँ हमारे पहचानवालों में से खोज-खोजकर निकालती. इतना मुझे मालूम है कि माँ ने प्रेमचंद का “नमक का दारोगा” पिताजी में खोजकर निकाला था. प्रेमचंद पढ़ते वक़्त माँ को ख़ूब हँसी भी आती, और तब वह मेरे मूड की परवाह किए बगैर मुझे प्रेमचंद-कथा-प्रसूत उसके हास्य का मर्म बताने की सफल-असफल चेष्टा करती.
प्रेमचंद के प्रति मेरी श्रद्धा व ममता को अमर करने का श्रेय माँ को ही है. मैं अपनी भावना में प्रेमचंद्र को माँ से अलग नहीं कर सकता. मेरी माँ सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध क्षोभ और विद्रोह से भरी हुई थी. यद्यपि वह आचरण में परंपरावादी थी, किंतु धन और वैभवजन्य संस्कृति के आधार पर ऊँच-नीच के भेद का तिरस्कार करती थी.
वह स्वयं उत्पीड़ित थी. और भावना द्वारा, स्वयं की जीवन-अनुभूति के द्वारा, माँ स्वयं प्रेमचंद के पात्रों में अपनी गणना कर लिया करती थी. मेरी ताई (माँ) अब बूढ़ी हो गई है. उसने वस्तुतः भावना और संभावना के आधार पर मुझे प्रेमचंद पढ़ाया. इस बात को वह नहीं जानती है कि प्रेमचंद के पात्रों के मर्म का वर्णन-विवेचन करके वह अपने पुत्र के हृदय में किस बात का बीज बो रही है. पिताजी देवता हैं, माँ मेरी गुरु है. सामाजिक दंभ, स्वाँग, ऊँच-नीच की भावना, अन्याय और उत्पीड़न से कभी भी समझौता न करते हुए घृणा करना उसी ने मुझे सिखाया.
लेकिन मेरी प्यारी श्रद्धास्पदा माँ यह कभी न जान सकी कि वह किशोर-हृदय में किस भीषण क्राँति का बीज बो रही है, कि वह भावनात्मक क्राँति उसके पुत्र को किस “उचित-अनुचित” मार्ग पर ले जाएगी, कि वह किस प्रकार अवसरवादी दुनिया के गणित से पुत्र को वंचित रखकर, उसके परिस्थिति-सामंजस्य को असंभव बना देगी.
आज जब मैं इन बातों पर सोचता हूँ तो लगता है कि यदि मैं, माँ और प्रेमचंद की केवल वेदना ही ग्रहण न कर, उनके चारित्रिक गुण भी सीखता, उनकी दृढ़ता, आत्म-संयम और अटलता को प्राप्त करता, आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति नष्ट कर देता, और उन्हीं के मनोजगत् की विशेषताओं को आत्मसात् करता, तो शायद, शायद मैं अधिक योग्य पात्र होता. मेरी माँ मेरी गुरु थी अवश्य, किन्तु, मैं उनका शायद योग्य शिष्य न था! अगर होता तो कदाचित् अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक होता, केवल प्रयोगवादी कवि बनकर न रह जाता.
मतलब यह कि जब कभी मैं प्रेमचंद के बारे में सोचता हूँ, मुझे अपने जीवन का खयाल आ जाता है. मुझे महान् चरित्रों से साक्षात्कार होता है, और मैं आत्म-विश्लेषण में डूब जाता हूँ. आत्मविश्लेषण की मनःस्थिति बहुत बुरी चीज़ है.
सहज ईर्ष्या
जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगा तो मेरे कुछ लेखक-मित्रों के पास प्रेमचंदजी के पत्र आए. मैं उन मित्रों के प्रति ईर्ष्यालु हो उठा. उन दिनों मैं उन लोगों को “जीनियस” समझता था, और प्रेमचंद को देवर्षि. अब सोचता हूँ कि दोनों बातें ग़लत हैं. मेरे लेखक-मित्र जीनियस थे ही नहीं, बहुत प्रसिद्ध अवश्य थे और अभी भी हैं. किंतु वे प्रेमचंद के लायक न तब थे, न अब हैं.
और यहाँ हम हिंदी साहित्य के इताहिस के एक मनोरंजक और महत्त्वपूर्ण मोड़ तक पहुँच जाते हैं. प्रेमचंद्र जी भारतीय सामाजिक क्राँति के एक पक्ष का चित्रण करते थे. वे उस क्राँति के एक अंग थे. किंतु अन्य साहित्यिक उस क्राँति का एक अंग होते हुए भी उसके सामाजिक पक्ष की संवेदना के प्रति उन्मुख नहीं थे. वह क्राँति हिंदी साहित्य में छायावादी व्यक्तिवादी भाव-धारा के प्रमुख प्रवर्तक थे.
यह व्यक्तिवाद एक वेदना के रूप में सामाजिक गर्भितार्थों को लिए हुए भी, प्रत्यक्ष रुप से, किसी प्रत्यक्ष सामाजिक लक्ष्य से प्रेरित नहीं था. जैनेंद्र में तो फिर भी मुक्तिकामी सामाजिक ध्वन्यर्थ थे, किंतु आगे चलकर “अज्ञेय” में वे भी लुप्त हो गए. कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेमचंद उत्थानशील भारतीय सामाजिक क्राँति के प्रथम और अंतिम महान् कलाकार थे. प्रेमचंद की भाव-धारा वस्तुतः अग्रसर होती रही, किंतु उसके शक्तिशाली आविर्भाव के रूप में कोई लेखक सामने नहीं आया. यह संभव भी नहीं था, क्योंकि इस क्राँति का नेतृत्व पढ़े-लिखे मध्यम-वर्ग के हाथ में था, और वह शहरों में रहता था, बाद में वह वर्ग अधिक आत्म-केन्द्रित और अधिक बुद्धि-छंदी हो गया तथा उसने काव्य में प्रयोगवाद को जन्म दिया.
किंतु, क्या यह वर्ग कम उत्पीड़ित है ? आज तो सामाजिक विषमताएं और भी बढ़ गई हैं. प्रेमचंद का महत्त्व पहले से भी अधिक बढ़ गया है. उनकी लोकप्रियता अब हिंदी तक ही सीमित नहीं रह गई है. अन्य भाषाओं में उनके अनुवादकर्ताओं के बीच होड़ लगी रहती है. प्रेमचंद द्वारा सूचित सामाजिक संदेश अभी भी अपूर्ण है. किंतु हम जो हिंदी के साहित्यिक हैं, उसकी तरफ़ विशेष ध्यान नहीं दे पाते. एक तरह से यह यथार्थ से भागना हुआ.
उदाहरण के रूप में आज का कथा-साहित्य पढ़कर पात्रों की प्रतिच्छाया देखने के लिए हमारी आँखें आस-पास के लोगों की तरफ़ नहीं खिंचती. कभी-कभी तो ऐसा लगता है, जैसे पात्रों की छाया ही नहीं गिरती, कि वे लगभग देहहीन हैं. लगता है कि हमारे यहाँ प्रेमचंद के बाद एक भी ऐसे चरित्र का चित्रण नहीं हुआ, जिसे हम भारतीय विवेक-चेतना का प्रतीक कह सकें. शायद, अज्ञान के कारण मेरी ऐसी धारणा होगी. कोई मुझे प्रकाश-दान दे.
प्रेमचंद की ज़रुरत
किंतु, कुल मिलाकर मुझे ऐसा लगता है कि प्रेमचंद की ज़रूरत आज पहले से भी ज़्यादा बढ़ी हुई है. प्रेमचंद के पात्र आज भी हमारे समाज में जीवित हैं. किंतु वे अब भिन्न स्थिति में रह रहे हैं. किसी के चरित्र का कदाचित् अधोपतन हो गया है, किसी का शायद पुनर्जन्म हो गया है, किसी का शायद पुनर्जन्म हो गया है. बहुतेरे पात्र संभवतः नए ढंग से सोचने लगे हैं. यह भावना साधार है कि ये सब पात्र अपने सृजनकर्ता लेखक की खोज में भटक रहे हैं. उन्हें अवश्य ऐसा कोई-न-कोई लेखक शीघ्र ही प्राप्त होगा.
प्रेमचंद की विशाल छाया में बैठकर आत्म-विश्लेषण की मनःस्थिति मुझे अजीब ख़यालों में डुबो देती है. माना कि आज व्यक्ति पहले-जैसा ही जीवन-संघर्ष में तत्पर है, किंतु अब वह अधिक आत्म-केंद्रित और आत्म-ग्रस्त हो गया है. माना कि इन दिनों वह समाज-परिवर्तन की, समाजवाद की, वैज्ञानिक विकास की, योजनाबद्ध कार्य की, अधिक बात करता है, किंतु एक चरित्र के रूप में, एक पात्र के रूप में, वह सघन और निबिड़ आत्म-केंद्रित होता जा रहा है. माना कि आज वह अधिक सुशिक्षित-प्रशिक्षित है, और अनेक पुराणपंथी विचारों को त्याग चुका है, तथा जीवन-जगत् से अधिक सचेत और सचेष्ट हैं किंतु मानो ये सब बातें, ये सारी योग्यताएँ, ये सारी स्पृहणीय विशेषताएं, उसे अधिकाधिक स्वयं-ग्रस्त बनाती गई हैं. कदाचित्, मेरा यह मंतव्य अतिशयोक्तिपूर्ण है, किंतु यह भी सही है कि वह एक तथ्य की ही अतिशयोक्ति है.
आश्चर्य मुझे इस बात का होता है कि आख़िर आदमी को हो क्या गया है! उसकी अंतरात्मा जो एक ज़माने में समाजोन्मुखी सेवाभावी थी, आज आदर्शवाद की बात करते हुए भी इतनी अजीब क्यों हो गई ? एक बार बातचीत के सिलसिले में, एक सम्माननीय पुरुष ने मुझे कहा कि व्यक्ति जितना सुशिक्षित-प्रशिक्षित होता जाएगा, उतना ही बौद्धिक होता जाएगा और उसी अनुपात में उसकी आत्मकेंद्रिता बढ़ती जाएगी, उतने ही उसके मानवोचित गुण (वर्च्यूज़) कम होते जाएंगे, जैसे, करूणा, क्षमा, दया, शील, उदारता आदि. मेरे ख़याल से उसने तो कहा है, ग़लत है. किंतु यह मैं निश्चय नहीं कर पाता कि उसका मंतव्य निराधार है. शायद, मैं ग़लती कर रहा हूँगा. जीवन के सिर्फ़ एक पक्ष को (अधूरे ढंग से और अपर्याप्त निरीक्षण द्वारा) आकलित कर मैं इस निराशात्मक मंतव्य की ओर आकर्षित हूँ.
सच
किंतु, कभी-कभी निराशा भी आवश्यक है. विशेषकर प्रेमचंद की छाया में बैठ, आज के अपने आस-पास के जीवन के दृश्य देख, वह कुछ तो स्वाभाविक ही है. सारांश यह, कि प्रेमचंदजी का कथा-साहित्य पढ़कर आज हम एक उदार और उदात्त नैतिकता की तलाश करने लगते हैं, चाहने लगते हैं कि प्रेमचंदजी के पात्रों के मानवीय गुण हममें समा जाएं. हम उतने ही मानवीय ही जाएं जितना कि प्रेमचंद चाहते हैं. प्रेमचंदजी करा कथा-साहित्य हम पर एक बहुत बड़ा नैतिक प्रभाव डालता है. उनका कथा-साहित्य पढ़ते हुए उनके विशिष्ट ऊँचे पात्रों द्वारा हमारे अंतःकरण में विकसित की गई भावनाएँ हमें न केवल समाजोन्मुख करती हैं, वरन् वे आत्मोन्मुख भी कर देती हैं. और जब प्रेमचंद हमें आत्मोन्मुख कर देते हैं, तब वे हमारी आत्म-केन्द्रिता के दुर्ग को तोड़कर हमें एक अच्छा मानव बनाने में लग जाते हैं. प्रेमचंद समाज के चित्रणकर्ता ही नहीं, वरन् वे हमारी आत्मा के शिल्पी भी हैं.
माना कि हमारे साहित्य का टेक्नीक बढ़ता चला जाएगा, माना कि हम अधिकाधिक सचेक और अधिकाधिक सूक्ष्म-बुद्धि होते जाएंगे, माना कि हमारा बुद्धिगत ज्ञान संवेदनाओं और भावनाओं को न केवल एक विशेष दिशा में मोड़ देगा, वरन् उनका अनुशासन-प्रशासन भी करेगा. किंतु क्या यह सच नहीं है कि मानवीय सत्यों और तथ्यों को देखने की सहज भोली और निर्मल दृष्टि, हृदय का सहज सुकुमार आदर्शवाद, दिल को भीतर से हिला देनेवाली कर्त्तव्योन्मुख प्रेरणा, भी हमारे लिए उतनी ही कठिन और दुष्प्राप्त होती जाएगी?
ओह! काश, हम भी भोली कली से खिल सकते हैं! पराए दुख में रोकर उसे दूर करने की भोली सक्रियता पा सकते हैं! शायद मैं विशेष मनःस्थिति में ही यह सब कह रहा हूँ. फिर भी मेरी यह कहने की इच्छा होती है कि समाज का विकास, अनिवार्यतः, मानवोचित नैतिक-हार्दिक विकास के साथ चलता जाता है, यह आवश्यक नहीं है. सभ्यता का विकास नैतिक विकास भी करता है, यह ज़रूरी नहीं है.
यह समस्या प्रस्तुत लेख के विषय से संबंधित होते हुए भी उसके बाहर है. मैं केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि प्रेमचंद का कथा-साहित्य पढ़कर हमारे मन पर जो प्रभाव होते हैं, वे धीरे-धीरे हमारी चिंतन को इस सभ्यता-समस्या तक ले आते हैं. क्या यह हमें प्रेमचंद की ही देन नहीं है?
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