Friday, March 23, 2007

.....आज माँ घबराई हुई है

मैं दिल्ली में हूँ मेरा मन कहीं कहाँ हूँ मैं और ये ज़िंदगी मेरी कि जैसे रेशा-रेशा बिखरने को यहाँ किससे कहूँ? दोस्त वो कौन हो कि जो आधी रात को तवज्जो दे कि मैं कितनी तकलीफ़ में सचमुच ये कैसा डर मैं ऐसा सोचता हूँ कि मेरे इस तरह बेवक़्त फ़ोन करने से कहीं ख़त्म न हो बची-खुची दुआ सलाम फिर भी उठाता हूँ फ़ोन कि इतना बेबस और घुमाता हूँ जो भी नंबर वह दिल्ली का नहीं होता। ***** इस भूल-भूलइया से बाहर निकलो ये दायरों का दिलचस्प तिलिस्म है इस स्क्रीन के भीतर ज्यों बैठा है कुंडली मारे तुम्हारा ईमान बन चुका दायरों में बाँट के तुम्हारी हस्ती काट दिया है उस जादूगर ने हवा से, धूप-पानी से अब तुम भूल गए हो ज़मीन कितनी बसोअ है जिस्म तुम्हारा कुम्हलाता है अब धूल-मिट्टी से तुम कितने ख़फ़ा हो चाँद-सूरज से और नातेदारों से इस तिलिस्म को तोड़े बिना तुम बाहर आ नहीं सकते इस तिलिस्म की कुँजी कहीं खो गई है तुम्हारे भीतर उसे खोजोः इसे खोलो ये कायनात बाहर कितनी अजीम है कितनी रोशनी कितनी हसीन ****** छोटी बात नहीं हैं ये न कोई छोटा क़िस्सा ये शक-ओ- ये चेहरे बेरौनक ये बंद दरवाज़े ये धुआँ-धुआँ चीख़-ओ-पुकार ये तबाही बात नहीं हैं ये ये अख़बार नहीं बिके हुए गुलाम हैं ये सच कब बोलते हैं??? ***** फ़िजाओं में खुश्बू का मेला रंगीनियाँ बिखरी हुई है बाज़ार सज-धज के खड़े हवाओं में नगमें बच्चों के लिए आज तो दिन है मौज मस्ती का माँ कहती है लेकिन आज घर के बाहर न निकलना आज त्यौहार का दिन है आज माँ घबराई हुई है *********************** लीलाधर मंडलोई