Sunday, July 01, 2007

शाम होने पर............

कुछ विश्व कविताएँ ग्रीष्म जॉर्ज त्राकल1887-1914, ऑस्टियन कवि चित्रांकन - हरीश परगनिहा शाम होने पर होने पर, कोयल की कुहूथमती है वन में. नीचे ओर झुकती है सतह दानेदार, लाल खसखस. काले बादल गरजते हैं बौराते पहाड़ी ऊपर. झींगुर का चिरंतन गान लुप्त हो जाता है मैदानों में. पात पांगरपेड़ के, और नहीं खड़कते. पेचदार ज़ीने पर तुम्हारा वेश सरसराता है. नीरव बत्ती एक चमकती है सियाह कमरे में; रुपहला हाथ एक इसे बुझाता है; न हवा, न तारे. रात. * * * * *

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