Friday, March 02, 2007
कालजयी मुकेश की यादगार यादें...
गायक मुकेश को याद करने की ख़ास वजह है. एक तो यही कि सिने संगीत के तौर पर अपने देश ने जो लोक संस्कृति की वैश्विक परंपरा और पहचान स्थापित की है, उसमें लता मंगेशकर के समान ही मुकेश का बहुत अहम योगदान रहा है.
सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो भारतीय सिने संगीत और गीत को मुकेश की आवाज़ और अदायगी ने अंतरराष्ट्रीय फलक पर फैलाया.
‘आवारा हूँ’ और ‘मेरा जूता है जापानी’ जैसे गीतों ने ही पहली बार भाषाई सीमांओं को तोड़कर रूस, चीन, जापान, मंगोलिया, तुर्की जैसे देशों में भारतीय सिने संगीत को पहुँचाया था.
उनको याद करने की दूसरी वजह यह भी है कि किसी सिने गायक की स्मृति में अब जो एक राष्ट्रीय पुरस्कार ‘स्माइल’ नामक सांस्कृतिक संस्था द्वारा स्थापित किया गया है वह उन्हीं के नाम पर हर साल दिया जाएगा.
यह साल मुकेश जैसे कालजयी गायक की 30 वीं पुण्यतिथि का साल है और इस पुरस्कार की राष्ट्रीय जूरी में हिंदी फ़िल्मों की बहुत बड़ी बड़ी हस्तियाँ शामिल हैं.
यह ख़बर सबसे पहले इसी वेबसाइट पर दी जा रही है.
भारत अपनी इस लोक संस्कृति का कितना सम्मान करता है यह इसी बात से ज़ाहिर है कि सरकार ने अपने चार गायकों मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, हेमंत कुमार और मुकेश के सम्मान में डाक टिकट जारी किए थे और यह भी इसी संस्था के संयोजक राजीव श्रीवास्तव की दूरदर्शिता और लगन के कारण संभव हुआ था.
बिखरी यादें
मुकेश की बहुत यादें बिखरी हैं. बहुतों के पास. मेरे पास भी उनकी कुछ दुर्लभ यादें हैं.
उनसे मेरी पहली मुलाक़ात मुम्बई के मशहूर चर्च गेट इलाके के स्टैंडर्ड रेस्तराँ में हुई थी. मुकेश इस रेस्तराँ को ‘सस्ते राहत’ पुकारते थे.
मुझे यह शब्द बहुत अच्छा और अर्थपूर्ण लगा था. मैंने उनसे इस खूबसूरत शब्द का ओरिजन पूछा तो उन्होंने इसका श्रेय हिंदी के प्रख्यात कथाकार भगवती चरण वर्मा को दिया था.
मुकेश और हिंद साहित्य के इस संबंध को लेकर मैं चकित सा रह गया. तब उन्होंने ही बताया था कि वे हिंदी साहित्य की थोड़ी बहुत किताबें पढ़ते रहते हैं. भगवती बाबू ने तो ‘चित्रलेखा’ जैसी महत्वपूर्ण और मशहूर फ़िल्म भी लिखी थी जिनका निर्देशन केदार शर्मा ने किया था.
जगह की कमी की वजह से यहाँ उनकी बहुत सी बातें छोड़नी पड़ेंगी लेकिन कुछ बातें तो दर्ज़ की ही जा सकती हैं. एक तो यही कि मुकेश हरियाणा के हिसार शहर से संबंधित थे.
उनका परिवार वहीं से दिल्ली आया था. वे दिल्ली में हीं जन्मे थे. यहीं से मैट्रिक करने के बाद वे फ़िल्म नगरी बम्बई में नायक अभिनेता बनने का अरमान लेकर पहुँचे थे.
वह जमाना नायक-गायक कुंदनलाल सहगल की कीर्ति का जमाना था. मुकेश भी उन्हीं किंवदंती बन चुके सहगल साहब के नक़्शे कदम पर चल पड़े .
यहीं रंजीत मूवीटोन में उनकी मुलाक़ात राज कपूर से हुई थी जो उस समय प्रख्यात निर्देशक केदार शर्मा के असिस्टेंट थे. इन दोनों की यह दोस्ती आजन्म रही, लेकिन यह नहीं भूला जा सकता कि मुकेश ही सबसे पहले फ़िल्मों के नायक गायक बने.
राजकपूर ने उनके बाद नायक अभिनेता के रूप में दुनिया में आसमानी ख्य़ाति अर्जित की, जिनके लिए मुकेश ने अपनी दर्द और सोज़ से भरी आवाज समर्पित कर दी थी.
तो हमारी मुलाकात चर्चगेट के स्टैंडर्ड ‘रास्ते राहत’ में हुई थी. जहाँ मैं भी कभी कभी कॉफी पीने जाया करता था. इस रेस्तराँ में संगीतकार शंकर जयकिशन की जोड़ी के जय किशन की एक तयशुदा मेज थी. जहाँ बैठकर वो अक्सर नाश्ता काफी लिया करते थे.
साहित्य से रिश्ता
मुकेश जय से मिलने वहाँ आया करते थे. तभी मुकेश ने साहित्य से अपने लगाव की गहरी बातें ज़ाहिर की थीं जो जगजाहिर नहीं है.
उनके व्यक्तित्व का यही पक्ष मेरे लिए अहमियत रखता है. अगर साहित्य की किसी कृति पर फ़िल्म बनती थी तो वे उस किताब को पढ़ने की कोशिश ज़रूर करते थे.
मुकेश एक कालजयी गायक होने के साथ ही बच्चन जी, नरेंद्र शर्मा, शैलेंद्र जैसे कवियों के गहरे प्रशंसक थे. वे बच्चन जी की ‘मधुशाला’ के भक्त थे और उसे रिकार्ड भी करना चाहते थे, जिसे बाद में मन्ना डे ने गाया और रिकार्ड किया.
मुकेश ने शैलेंद्र के पचासों गीत गाकर उन्हें लोक स्मृति का अविस्मरणीय हिस्सा बना दिया.
मुकेश ने ख़ुद ही बताया था कि जब शैलेंद्र ‘तीसरी कसम’ बना रहे थे तब उन्होंने राजकपूर अभिनीत गीतों की आत्मा में उतरने के लिए फ़णीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ को कई बार पढ़ा था. उनके हिंदी प्रेम और भारत की समिन्वत संस्कृति से ज़ुड़े होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि ‘पहली नज़र’ के गीत ‘दिल जलता है तो जलने दें’ से शुरू करके तुलसीदास की रामायण को भी उन्होंने स्वरबद्ध किया था.
कमलेश्वर
कथाकार और समीक्षक
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